सभ्य समाज दिखय ऊप्पर ले…!! (छत्तीसगढ़ी दोहे)
सभ्य अउ सुधरा दिखय समाज …!! (छत्तीसगढ़ी दोहे)
डाँड़ म लाखों लूटय समाज, पंगत भर लय भात !
कहाँ किंदरबे भाँवर बाबू, कहाँ लेजाबे बरात !!
भाग तहीं चाहे लान भगा के, आबे हमरे तीर !
हर सिकार बर सब्दभेदी के, बाण म भरे तुनीर !!
बोचक के कै दिन करबे गुजारा, परदेसी बन के !
आबे एक दिन एही जगा म, जी ले अभी तन के !!
मेकरा बन गे मुखिया जम्मो, माछी मंगसा समाज !
फँसे तिहाँ गिन रुपिया खर्रा, तभे बाँचही लाज !!
गुनय गरीब न दूबर देखय, न तोर दुख ले काम !
मुखिया कोलिहा बन के मोटावयँ, झीकयँ पइसा दाम !!
अंगठा छाप के लगे अदालत, पढ़े-लिखे मुजरिम !
गंजहा दरुहा दोष गिनावयँ, ईंकरेच जज अउ टीम !!
कोलिहा मन के चलय अदालत, भेंड़ी भेंड़वा आयँ !
डाँड़ बतावयँ हर्रस-भर्रस, इन कलेचुप पगुरायँ !!
मेकरा मुखिया कब समझही, डाँड़ म गिरय समाज !
पाप उफलही तुहँरो एक दिन, गरजत ह जउन आज !!
आए-जाए के पीए-खाए के, भत्ता ईंकर अपार !
ईंकर अदालत के खर्चा म, चड़ ही करजा भार !!
सुप्रीम कोर्ट ले बड़े न्यायधीश, जब्बड़ बड़े उकील !
ईंकर फैसला ब्रह्मलेख कस, घटय बढ़य न तिल !!
हर अपराध के एक सज़ा, ले कस के जुरमाना !
गर मुरकेट के रुपिया निकालयँ, बोलयँ मनमाना !!
जोहन कवि बड़ असमंजस म, गढ़य कविता लेख !
हाथ जोड़ के सुमिरय काली, सभ्य समाज ल देख !!
तहूँ निरदयी गुनथवँ तोला, तोरो भयानक रूप !
सभ्य अउ सुधरा दिखय समाज, अंतस बिकट कुरूप !!
खप्पर म भर हर बिकार ल, हर दुरगुन ल लील !
रोग ह बाढ़य सोग करे म, समाज ल झन दे ढील !!